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Thursday, March 26, 2020

महान समाज सुधारक महर्षि दयानंद सरस्वती


दोस्तों दयानंद सरस्वती एक महान समाज सुधारक  एक हिंदू धार्मिक नेता, प्रसिद्ध वैदिक विद्वान और आर्य समाज के संस्थापक थे। आइए जीवन, योगदान और उपलब्धियों पर एक नज़र डालते हैं
महान समाज सुधारक महर्षि दयानंद सरस्वती


जीवनकाल :- दोस्तों दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी, 1824 को टंकरा, गुजरात में हुआ था| उनके पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी और माँ का नाम यशोदाबाई था। उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। दयानंद सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था और उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत आराम से बीता। परिवार के धार्मिक होने के कारण, मूल शंकर को बहुत कम उम्र से ही धार्मिक अनुष्ठान, पवित्रता और पवित्रता, उपवास का महत्व सिखाया जाता था। यज्ञोपवीत संस्कार या "दो बार जन्मे" का निवेश किया गया था, जब वह 8 वर्ष का था और जिसने मूल शंकर को ब्राह्मणवाद की दुनिया में प्रवेश कराया। वह बहुत ईमानदारी के साथ इन अनुष्ठानों का पालन करेगा। शिवरात्रि के अवसर पर, मूल शंकर भगवान शिव की आज्ञा पालन में पूरी रात जागते थे। ऐसी ही एक रात को, उसने एक चूहे को भगवान को प्रसाद खाते हुए देखा और मूर्ति के शरीर पर दौड़ लगा दी। इसे देखने के बाद, उन्होंने खुद से सवाल किया, अगर भगवान अपने आप को एक छोटे से चूहे से बचाव नहीं कर सकते, तो वह बड़े पैमाने पर दुनिया का उद्धारकर्ता कैसे हो सकता है। आगे चलकर एक पण्डित बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए। 

आध्यात्मिक संकेत
                                       

मूल शंकर अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण हुई मृत्यु  के बाद आध्यात्मिक क्षेत्र की ओर आकर्षित हुए थे जब वह 14 साल के थे। उसने अपने माता-पिता से जीवन, मृत्यु और उसके जीवन के बारे में सवाल पूछना शुरू कर दिया, जिसका उनके पास कोई जवाब नहीं था। सामाजिक परंपराओं के अनुसार शादी करने के लिए कहने पर, मूल शंकर घर से भाग गया। वह अगले 20 वर्षों तक मंदिरों, तीर्थस्थलों और पवित्र स्थानों पर घूमने के लिए पूरे देश में घूमता रहा। वह पहाड़ों या जंगलों में रहने वाले योगियों से मिले, उनसे उनकी दुविधाओं के बारे में पूछा, लेकिन कोई भी उन्हें सही जवाब नहीं दे सका।
अंत में वह मथुरा पहुंचे जहां उन्होंने स्वामी विरजानंद से मुलाकात की। मूलशंकर उनके शिष्य बन गए और स्वामी विरजानंद ने उन्हें वेदों से सीधे सीखने का निर्देश दिया। उन्होंने अपने अध्ययन के दौरान जीवन, मृत्यु और जीवन के बारे में अपने सभी सवालों के जवाब दिए। स्वामी विरजानंद ने मूल शंकर को पूरे समाज में वैदिक ज्ञान फैलाने का काम सौंपा और उन्हें ऋषि दयानंद के रूप में प्रतिष्ठित किया।
ज्ञान की खोज                               फाल्गुन कृष्ण संवत् १८९५ में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में नया मोड़ आया। उन्हें नया बोध हुआ। वे घर से निकल पड़े और यात्रा करते हुए वह गुरु विरजानन्द के पास पहुंचे। गुरुवर ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा- विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा है। उन्होंने आशीर्वाद दिया कि ईश्वर उनके पुरुषार्थ को सफल करे। उन्होंने अंतिम शिक्षा दी -मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है, ऋषिकृत ग्रंथों में नहीं। वेद प्रमाण हैं। इस कसौटी को हाथ से छोड़ना।
आध्यात्मिक विश्वास


समाज महर्षि दयानंद हिंदू धर्म में एक आस्तिक मानता  है   जैसा कि वेदों ने उल्लिखित किया है, किसी भी भ्रष्टाचार और विनाश से रहित। विश्वास की पवित्रता को बनाए रखना उसके लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था। उन्होंने धर्म की अवधारणाओं की दृढ़ता से वकालत की, जिसे वे किसी भी पक्षपात से मुक्त और सत्यता के अवतार के रूप में मानते थे। उसके लिए धर्म ऐसा कुछ भी था जो सत्य नहीं था, केवल न्यायपूर्ण या उचित नहीं था और वेदों की शिक्षाओं का विरोध करता था। वह मानव जीवन की किसी भी बात के प्रति श्रद्धा रखते थे और अहिंसा या अहिंसा के पालन की बात करते थे। उन्होंने अपने देशवासियों को सलाह दी कि वे मानव जाति की बेहतरी के लिए अपनी ऊर्जा को प्रत्यक्ष रूप से निर्देशित करें और अनावश्यक अनुष्ठानों में बर्बाद न हों। उन्होंने मूर्तिपूजा की प्रथा को रद्द कर दिया और उन्हें अपने स्वयं के लाभ के लिए पुरोहित द्वारा पेश किए गए संदूषण माना। वह अंधविश्वास और जाति अलगाव जैसी अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ थे। उन्होंने स्वराज्य की अवधारणा की वकालत की, जिसका अर्थ है विदेशी प्रभाव से मुक्त देश, निष्पक्ष और सिर्फ प्रतिभागियों की महिमा में निपुण।
दयानंद सरस्वती और आर्य समाज
                                         

आर्य  शब्द का अर्थ है  श्रेष्ठ और प्रगतिशील अतः आर्य समाज का अर्थ हुआ श्रेष्ठ और प्रगतिशीलों का समाज, जो वेदों के अनुकूल चलने का प्रयास करते हैं। दूसरों को उस पर चलने को प्रेरित करते हैं।
आर्य समाज का आदर्श वाक्य है: कृण्वन्तो विश्वमार्यम्, जिसका अर्थ है - विश्व को आर्य बनाते चलो।

7 अप्रैल, 1875 को दयानंद सरस्वती ने बॉम्बे में आर्य समाज का गठन किया।

मान्यताएँ

ईश्वर का सर्वोत्तम और निज नाम ओम् है। उसमें अनंत गुण होने के कारण उसके ब्रह्मा, महेश, विष्णु, गणेश, देवी, अग्नि, शनि वगैरह अनंत नाम हैं। इनकी अलग- अलग नामों से मूर्ति पूजा ठीक नहीं है। आर्य समाज वर्णव्यवस्था यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र को कर्म से मानता है, जन्म से नहीं। आर्य समाज स्वदेशी, स्वभाषा, स्वसंस्कृति और स्वधर्म का पोषाक है।
आर्य समाज सृष्टि की उत्पत्ति का समय चार अरब ३२ करोड़ वर्ष और इतना ही समय प्रलय काल का मानता है। योग से प्राप्त मुक्ति का समय वेदों के अनुसार ३१ नील १० खरब ४० अरब यानी एक परांत काल मानता है। आर्य समाज वसुधैव कुटुंबकम् को मानता है। लेकिन भूमंडलीकरण को देश, समाज और संस्कृति के लिए घातक मानता है। आर्य समाज वैदिक समाज रचना के निर्माण आर्य चक्रवर्ती राज्य स्थापित करने के लिए प्रयासरत है। इससमाज में मांस, अंडे, बीड़ी, सिगरेट, शराब, चाय, मिर्च-मसाले वगैरह वेद विरुद्ध होते हैं।

आर्य समाज के दस सिद्धांत इस प्रकार हैं:
आर्य समाज के दस नियम

  • 1.  सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।
  • 2 . ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करने योग्य है।
  • 3 . वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढनापढाना और सुननासुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
  • 4 . सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोडने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।
  • 5 . सब काम धर्मानुसार, अर्थात सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहियें।
  • 6. संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
  • 7. सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य वर्तना चाहिये।
  • 8. अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।
  • 9. प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से संतुष्ट रहना चाहिये, किंतु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये।
  • 10. सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वहितकारी, नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम पालने में स्वतंत्र रहें।
वेदों को छोड़ कर कोई अन्य धर्मग्रन्थ प्रमाण नहीं है - इस सत्य का प्रचार करने के लिए स्वामी जी ने सारे देश का दौरा करना प्रारम्भ किया और जहां-जहां वे गये प्राचीन परम्परा के पण्डित और विद्वान उनसे हार मानते गये। संस्कृत भाषा का उन्हें अगाध ज्ञान था। संस्कृत में वे धाराप्रवाह बोलते थे। साथ ही वे प्रचण्ड तार्किक थे।
उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रन्थों का भली-भांति अध्ययन-मन्थन किया था। अतएव अपनें चेलों के संग मिल कर उन्होंने तीन-तीन मोर्चों पर संघर्ष आरंभ कर दिया। दो मोर्चे तो ईसाइयत और इस्लाम के थे किन्तु तीसरा मोर्चा सनातनधर्मी हिन्दुओं का था। दयानन्द ने बुद्धिवाद की जो मशाल जलायी थी, उसका कोई जवाब नहीं था। नवोत्थान अब पूरे प्रकाश में गया था और अनेक समझदार लोग मन ही मन अनुभव करने लगे थे कि वास्तव में पौराणिक धर्म की पोंगापंथी में कोई सार नहीं है। मगर सत्य यह था कि पौराणिक ग्रंथ भी वेद आदि शास्त्र में आते हैं।
स्वामी प्रचलित धर्मों में व्याप्त बुराइयों का कड़ा खण्डन करते थे। सर्वप्रथम उन्होंने उसी हिंदु धर्म में फैली बुराइयों पाखण्डों का खण्डन किया, जिस हिंदु धर्म में उनका जन्म हुआ हुआ था, तत्पश्चात अन्य मत-पंथ सम्प्रदायों में फैली बुराइयों का विरोध किया। इससे स्पष्ट होता है वे तो किसी के पक्षधर थे ही किसी के विरोधी नहीं थे। वे केवल सत्य के पक्षधर थे, समाज सुधारक थे सत्य को बताने वाले थे। स्वामी जी सभी धर्मों में फैली बुराइयों का विरोध किया चाहे वह सनातन धर्म हो या इस्लाम हो या ईसाई धर्म हो। अपने महाग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में स्वामीजी ने सभी मतों में व्याप्त बुराइयों का खण्डन किया है वह भी अपनी बुद्धि के हिसाब से है। उनके समकालीन सुधारकों से अलग, स्वामीजी का मत शिक्षित वर्ग तक ही सीमित नहीं था अपितु आर्य समाज ने आर्यावर्त (भारत) के साधारण जनमानस को भी अपनी ओर आकर्षित किया।
सन् १८७२ . में स्वामी जी कलकत्ता पधारे। वहां देवेन्द्रनाथ ठाकुर और केशवचन्द्र सेन ने उनका बड़ा सत्कार किया। ब्राह्मो समाजियों से उनका विचार-विमर्श भी हुआ किन्तु ईसाइयत से प्रभावित ब्राह्मो समाजी विद्वान पुनर्जन्म और वेद की प्रामाणिकता के विषय में स्वामी से एकमत नहीं हो सके। कहते हैं कलकत्ते में ही केशवचन्द्र सेन ने स्वामी जी को यह सलाह दे डाली कि यदि आप संस्कृत छोड़ कर आर्यभाषा (हिन्दी) में बोलना आरम्भ कर दें तो देश का असीम उपकार हो सकता है। ऋषि दयानन्द को स्पष्ट रूप से हिंदी नहीं आती थी। वे संस्कृत में पढ़ते-लिखते बोलते थे और जन्मभूमि की भाषा गुजरती थी इसलिए उन्हें हिंदी अथार्त आर्यभाषा का विशेष परिज्ञान था (देखें, सत्यार्थ प्रकाश द्वितीय संस्करण की भूमिका) तभी से स्वामी जी के व्याख्यानों की भाषा आर्यभाषा (हिन्दी) हो गयी और आर्यभाषी (हिन्दी) प्रान्तों में उन्हे अगणित अनुयायी मिलने लगे। कलकत्ते से स्वामी जी मुम्बई पधारे और वहीं १० अप्रैल १८७५ . को उन्होने 'आर्य समाज' की स्थापना की। मुम्बई में उनके साथ प्रार्थना समाज वालों ने भी विचार-विमर्श किया। किन्तु यह समाज तो ब्राह्मो समाज का ही मुम्बई संस्करण था। अतएव स्वामी जी से इस समाज के लोग भी एकमत नहीं हो सके।
मुम्बई से लौट कर स्वामी जी इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) आए। वहां उन्होंने सत्यानुसन्धान के लिए ईसाई, मुसलमान और हिन्दू पण्डितों की एक सभा बुलायी। किन्तु दो दिनों के विचार-विमर्श के बाद भी लोग किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके। इन्द्रप्रस्थ से स्वामी जी पंजाब गए। पंजाब में उनके प्रति बहुत उत्साह जाग्रत हुआ और सारे प्रान्त में आर्यसमाज की शाखाएं खुलने लगीं। तभी से पंजाब आर्यसमाजियों का प्रधान गढ़ रहा है।
विरासत

आज आर्य समाज न केवल भारत में बल्कि विश्व के अन्य हिस्सों में भी बहुत सक्रिय है। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, त्रिनिदाद, मैक्सिको, यूनाइटेड किंगडम, नीदरलैंड, केन्या, तंजानिया, युगांडा, दक्षिण अफ्रीका, मलावी, मॉरीशस, पाकिस्तान, बर्मा, थाईलैंड, सिंगापुर, हांगकांग और ऑस्ट्रेलिया कुछ ऐसे देश हैं जहां समाज इसकी शाखाएँ।

हालाँकि महर्षि दयानंद और आर्य समाज कभी भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सीधे तौर पर शामिल नहीं थे, लेकिन उनके जीवन और उनकी शिक्षाओं का लाला लाजपत राय, विनायक दामोदर सावरकर, मैडम कामा, राम प्रसाद बिस्मिल, महादेव गोविंद रानाडे, मदन जैसे कई महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों में काफी प्रभाव था। लाल ढींगरा और सुभाष चंद्र बोस। शहीद भगत सिंह की शिक्षा डी.ए.वी. लाहौर में स्कूल।

वह एक सार्वभौमिक रूप से सम्मानित व्यक्ति थे और अमेरिकी अध्यात्मविद एंड्रयू जैक्सन डेविस ने महर्षि दयानंद को "ईश्वर का पुत्र" कहा था, उन्होंने स्वीकार किया कि उन्होंने अपनी आध्यात्मिक मान्यताओं पर गहरा प्रभाव डाला और राष्ट्र की स्थिति बहाल करने के लिए उनकी सराहना की।
आर्यसमाज का योगदान
  • स्वामी जी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: हिंदू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया।[3]
  • आज विदेशों तथा योग जगत में नमस्ते शब्द का प्रयोग बहुत साधारण बात है। एक जमाने में इसका प्रचलन नहीं था - हिन्दू लोग भी ऐसा नहीं करते थे। आर्यसमाजियो ने एक-दूसरे को अभिवादन करने का ये तरीका प्रचलित किया। ये अब भारतीयों की पहचान बन चुका है।
  • स्वामी दयानन्द ने हिंदी भाषा में सत्यार्थ प्रकाश पुस्तक तथा अनेक वेदभाष्यों की रचना की।[3] एक शिरोल नामक एक अंग्रेज ने तो सत्यार्थ प्रकाश को ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें खोखली करने वाला लिखा था।
   

                             एक छोटा सा प्रयास हमारी संस्कृति से जुड़ने व् जोड़ने का |
                                                            धन्यवाद

               कृण्वन्तो विश्वमार्यम्
           विश्व को आर्य बनाते चलो।



 

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